पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/७३

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७२ आवारागर्द क्षण-क्षण पर मै मिस्टर लाल के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था, रह-रह कर हृदय कांप उठता था । क्या परिणाम होगा, समझ 'नहीं पड़ता था। एक दिन सुबह अपने कमरे में बैठा मै सूफिया के चित्र को निराश भाव से देख रहा था। मन कैसा कुछ हो रहा था। सोच रहा था एक अनोखा खेल खेला । खेल ही खेल में अलभ्य निधि पाई और खो दी। मुझे मालूम हुआ धीरे से द्वार खुला । सोचा, नौकर आया होगा। कालेज का समय हो रहा था । वह शायद भोजन के लिये बुलाने आया होगा। मैने बिना ही उस ओर देखे कहा-'ठहरो गोपाल, मै अभी आता हूं।' पर कमरे में जैसे कुछ सौरभ-सा फैल गया। मै आँख उठा कर देखने लिए विवश हो गया। देखा, जीती-जागती सूफ़िया थी। मैने कुर्सी से खड़ा होना चाहा, पर लड़खड़ा कर गिर गया। परन्तु दूसरे ही क्षण सुफ़िया मेरी गोद में थी। वह मेरी छाती में सिर दिये सिसक-सिसक कर रो रही थी। मैं जैसे ब्रह्माण्ड को फोड़ कर एक अगम लोक में उठा जा रहा था। अंत में मैंने अपने होश-हवाश कायम किये । मैने साहस बटोर कर कहा-'सृफ़िया राजकुमारी' तुमने अचानक ही मुझे गिरफ्तार कर लिया। मुझे मरने का अवसर नहीं दिया, जो मेरी इस प्रवञ्चना का सच्चा दण्ड था! सूफ़िया ने शिथिल बाहें फिर मेरे गले में डाल दीं। उसने नील-आकाश की भॉति स्वच्छ आँखों से मेरी ओर देर तक ताकते रहने के बाद कहा-'प्यारे, तुम पूरे ठग और भयानक जादूगर निकले । तुमने पहले मुझ पर जादू किया और फिर मुझे ठग लिया। उसने उसी भॉति मेरी गोद में लेटे-लेटे सब बाते कहीं। उसने बताया कि उसे मेरा छल तो बहुत दिन हुए मालूम हो गया