पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/८

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आवारागर्द


धीरे से दूकानदार से कहा "कहीं इस गधे से यह मत बता देना कि हम डॉक्टर हैं, नाहक हमें अटकना पड़ेगा। आए हैं तफरीह को, और बला सिर पड़ेगी। अरे भाई, नाक में दम है इन मरीज़ों के मारे, कमबख्त यहाँ भी दम नहीं लेने देते।"

दुकानदार ने क्षण-भर गौर से देखा, और यथा संभव आदर प्रदर्शन करके कहा--"डॉक्टर साहब, अब इस मुसीबत में तो इस बेचारे की मदद कर ही दीजिए।" फिर उसने जोर से युवक से कहा-"भाग्य की बात समझो कि डॉक्टर सामने बैठे हैं।"

युवक एकदम पास आकर मिन्नते करने लगा। मैंने कहा-- "तो बुखार की तरह सिर पर क्यों चढ़े आते हो? बाबा, खा तो लेने दो, घबराओ मत; जाओ, कह दो-'डॉक्टर साहब आते हैं।' चुटकी बजाते सब ठीक हो जायगा।"

तसल्ली पाकर युवक दौड़ गया। मैं सोचने लगा अब डॉक्टरी धज बनाई जाय तो कैसे? मैला, फटा कोट, धूल-भरे पैर, दवा न दारू, और डॉक्टरी तो सात पीड़ी ने न की थी। कॉलेज मे जब पढ़ते थे, स्काउटिग मे नाम लिखा लिया था, पास में काम की चीज़ सिर्फ एक वेसलीन की शीशी थी, मैंने उसी से तमाम मतलब, हल करने की ठान ली,

जाकर देखा, कुछ चोट-ओट नहीं आई थी-न घाव हुआ न हड्डी टूटी, यों ही जरा खाल छिल गई थी, जितनी गंभीरता धारण की जा सकती थी, धारण करके मरीज देखा-कपड़ा माँगकर पट्टियाँ बनाई, और जरा-सी वेसलीन चुपड़कर लपेट दी, बाद में डॉक्टरी धज से साबुन से हाथ धोकर चल देने की ठानी, इतमीनान हुआ कि ५ रुपए अभी जेब में खनखना उठेंगे, श्रीनगर तक का चाय-पानी हो जायगा।

परतु सेठ कोई गुजराती गावदी था। हाथ जोड़कर बोला