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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/९४

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जापानी दासी

व्यतीत हुआ था। जापान ही मेरा घर था। मैं अविवाहित ही रहा। घर से दरिद्रदेव की लात खाकर बचपन हीं में भाग निकला था। यहां विदेश मे लक्ष्मीं की ठोकरे खाने से इतनी फुरसत न मिलती थी कि देश जाकर किसी कन्या-भार-ग्रस्त पिता का कुछ उपकार सकूं। विदेशी रमणी को पत्नी बनाना ठीक नहीं समझा। जवानी की आंधी आई, और वासना के टिम-टिमाते स्नेह-हीन दीपक को एक ही झोंके से बुझाकर चल दी। जीवन अन्तिम रात्रि के शांति वातावरण की भांति बीत रहा था, मन और इन्द्रियों की चंचलता धीमी पड़ गई थी। हृदय अलसाया पड़ा था। सब काम आप ही चल रहा था। रुपयों का ढेर छमाछम नाचता हुआ आप ही मेरे ऊपर आ गिरता था, मुझे कुछ भी न करना पड़ता।

मेरे घर में मुझे छोड़ कर मेरी एक दासी हैं। उसे मैं एक दिन बाजार की एक गली से ले आया था। यह वहाँ उस दिन कुछ रुपया कमाने की इच्छा से अपने यौवन का सौदा सड़क पर बखेरे खड़ी थी। मुझे युवा और सपन्न देख इसने आँखों ही आँखों में मुझे अपने सौदे की तरफ अकर्षित किया। मैने बाते की। और, जाना कि पिता का कर्ज चुकाने को यह कुमारी बालिका आज अपना कौमार्य बेचने आई है। इसका पिता एक किरानी का क्लर्क था। मैं उसके साथ जाकर उससे मिला। कुल सौ येन की उसे जरूरत थी, वह मैने उसे दिए, और सौ येन वार्षिक वृति पर मैंने उसे नौकर रख लिया। यह आज से ३ साल पूर्व की बात हैं। तब से दिन रात मेरे घर रहती हैं। घर का सब काम करती, भोजन बनाती, सफाई करती, कपड़े धोती ओर मेरी सब वस्तुओं को सँभालती हैं। मै यह भूल गया हूँ कि वह मेरी दासी हैं।