पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/९४

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जापानी दासी ६३ व्यतीत हुआ था। जापान ही मेरा घर था। मै अविवाहित ही रहा। घर से दरिद्रदेव की लात खाकर बचपन ही में भाग निकला था। यहां विदेश में लक्ष्मी की ठोकरे खाने से इतनी फुरसत न मिलती थी कि देश जाकर किसी कन्या-भार-प्रस्त पिता का कुछ उपकार सकू। विदेशी रमणी को पत्नी बनाना ठीक नहीं समझा। जवानी की आंधी आई, और वासना के टिम- टिमाते स्नेह-हीन दीपक को एक ही झोंके से बुझाकर चल दी। जीवन अन्तिम रात्रि के शांति वातावरण की भांति बीत रहा था, मन और इन्द्रियों की चंचलता धीमी पड़ गई थी। ह्रदय अल- साया पड़ा था।-सब काम आप ही चल रहा था । रुपयों का ढेर छमाछम नाचता हुआ आप ही मेरे ऊपर आ गिरता था, मुझे कुछ भी न करना पड़ता । मेरे घर मे मुझे छोड़ कर मेरी एक दासी है। उसे मै एक दिन बाजार की एक गली से ले आया था। यह वहाँ उस दिन कुछ रुपया कमाने की इच्छा से अपने यौवन का सौदा सड़क पर बखेरे खड़ी थी। मुझे युवा और सपन्न देख इसने ऑखों-ही-ऑखों में मुझे अपने सौदे की तरफ अकर्षित किया। मैंने बात की। और, जाना कि पिता का कर्ज चुकाने को यह कुमारी बालिका आज अपना कौमार्य वेचने आई है। इसका पिता एक किरानी का क्लर्क था। मैं उसके साथ जाकर उससे मिला । कुल सौ येन की उसे जरूरत थी, वह 'मैने उसे देदिए, और सौ येन वार्षिक वृति पर मैंने उसे नौकर रख लिया । यह आज से ३ साल पूर्व की बात है। तब से दिन रात मेरे घर रहती है। घर का सब काम करती, भोजन बनाती, सफाई करती , कपड़े धोती और मेरी सब वस्तुओं को सँभालती है। मैं यह भूल गया हूँ कि वह मेरी दासी है।