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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/९७

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आवारागर्द


उस दिन मैं रात को लौट नहीं सकता था। मैंने फोन में इस बात की सूचना बिजली को दे दी थी। मेरे मेहमान को कोई कष्ट न हो, तथा उन्हें खाना खिलाकर सुला दिया जाय, यह भी कह दिया था। आज रात को मैं घर न आ सकूँगा, यह जानकर मेरे मेहमान की धुकधुकी बढ़ गई।

बिजली ने उन्हें सब सूचना दी। वह गरमा-गरम खाना ले आई। खाने के बाद एक कप काफी भी दे गई। इसके बाद ही जब वह उनके शयनगृह के द्वार पर बिजली का बटन पकड़कर खड़ी हुई, और मुस्कराकर बत्ती बुझाने को कहा; तो मेहमान महाशय ने लपककर, उसका हाथ पकड़कर चूम लिया। बिजली कुछ लाज, कुछ आदर से झुकी, शिष्टाचार के खयाल से नाराजी मिश्रित तनिक मुस्कान उसके होठों पर आई। वह बत्ती बुझाकर अपने कमरे में जा सोई।

वह कभी अपना कमरा बंद करके नहीं सोती थी। वह दिनभर की थकी-माँदी सो रही थी। दूध के फेन के समान उसके बिछौने पर चद्रमा की उज्ज्वल, नीली किरणे पड़ रही थीं। उसके सुनहरे बाल बिखर रहे थे, और अर्ध-नग्न वक्षःस्थल साँस के साथ उठ बैठ रहा था। गर्मी थी, और उसके शरीर पर सोने के समय की हलकी पोशाक थी।

मेरे मनचले युवक मेहमान की आँखों में नींद न थी। बिजली की लहर उनके मन मे लहरा रही थी। वह साहस करके उठे। जूता उन्होंने नहीं पहना। वह पंजे के बल ऊपर की मंजिल पर चढ़ गए। उन्हें मालूम था कि वह किस कमरे में सोती हैं। वहाँ जाकर उन्होंने बिजली का उन्मुक्त सौंदर्य आँख भर देखा। वह मुग्ध होकर देखते रह गये!

उन्होंने और भी साहस किया, वह भीतर घुस गये। द्वार बंद कर दिया, और बिजली के पलंग पर बैठ गए।