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इन्दिरा।

को क्यों मैं गाली दे सकती हूं? यह किसी बड़े घराने की लड़की है। बचवा! तुम किसी बात का सोच न करो, मैं तुम्हें रसोई पानी करना सिखा कर जाऊंगी।”

बुढ़िया के साथ इसी भांति मेल हो गया। मैं बहुत दिनों से केवल रोती ही रहती थी, पर आज बहुत दिनों पर हंसी आई। ऐसा हंसीठट्ठा दरिद्र के धन के समान बहुत ही मीठा लगा था, इसी लिये बुढ़िया को बातें इतने विस्तार से लिखीं। इस हंसी को मैं इस जन्म में कभी न भूलूंगो, ओर न कभी हंस कर वैसा सुख ही पाऊगी।

फिर मालकिनी भोजन करने बैठीं। मैं भी बैठ कर यत्नपूर्वक उन्हें खिलाने लगी। निगोड़ी ढेर सा गटक कर अन्त में बोली―

“अच्छा तो पकाती हो, जी! यह सब कहां सीखा?”

मैंने कहा―नैहर में।

मालकिनी―तुम्हारा नैहर कहां है?

इस पर मैं ने एक झूठी बात कह दी। फिर उन्हों ने कहा―"यह तो धनवानों के घर की सी रसोई बनी है। तुम्हारे बाप क्या बड़े आदमी थे?”

मैं―हां, थे।

मालकिनी―तब तुम रसोईदारी करने क्यों आई?

मैं―दुर्दशा में पड़ कर।

मालकिनी―अच्छा तो मेरे यहां रहो, अच्छी तरह रहोगी। तुम बड़े आदमी की लड़की हो, सो मेरे घर भी उस्लो भाति रहोगी।