पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७३
बारहवा परिच्छद।

सुभाषिणी—नहीं तो और कौन? तुमने अपने दूलह, ससुर, और अपने गांव का नाम बतला दिया था, सो याद है कि नहीं? बस, वही सुन कर मेरे र० बाबू ने तुम्हारे चितचोर को चीन्ह लिया। तुम्हारे उ० बाबू का एक बड़ा मुकद्दमा इन के हाथ में था―उसी बहाने तुम्हारे उ० बाबछ को कलकत्ते आने के लिये मेरे र० बाबू ने लिखा; और फिर आतेही निमंत्रण!!!

मैं―और फिर हाथ फैला कर बूढ़ी से दाल उझलवा लेना!

सुभाषिणी―हां! वह भी हमीं लोगों का षड्यंत्र था।

मैं―तो क्या मेरे उ० बाबू का मेरी कुछ टोह दी गई है?

सुभाषिणी―अरे, सत्यानाशिन! भला, ऐसा भी कभी हो सकता है? तुम्हें डाकू लूट ले गले थे, फिर तुम न जाने कहां कहां गई, इस का हात कौन जाने? तुम्हारे परिचय को पाकर फिर क्या वे तुम्हें अपने घर में रक्खेंगे? वरन कहेगे कि जिसका पैर निकल गया उसे कौन अपनाये? इस लिये र० बाबू तो यों कहते हैं कि अब जो कुछ कर सकती हो, सो तुम आप करो।

मैं―मैं एक बार अपना करम ठीक कर देखूंगी कि क्या होता है―नहीं तो डूब मरूंगी। किन्तु उन के साथ बिना भेंट किये क्या कर सकती हूं?

सुभाषिणी―कब मुलाकात करोगी, कहां पर मिलोगी?

मैं―तुम लोगों ने जब यहां तक किया है तो इस विषय में भी थोड़ी सहायता करो। उन के डेरे पर जाकर मैं नहीं मिलूंगी―और जो जाता भी काहूं तो वहां ले कौन जायगा? और कौन मुलाकात करा देगा? इसलिये वहीं पर मिलना ठीक है।