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इन्दिरा।

पन्द्रहवा परिच्छेद।

जाति से बाहर!

तब वह सोच मेरा दूर हुआ। इस के पहिले ही मैंने समझ लिया था कि वे मेरे वश हो गये हैं। मैंने मन ही मन कहा कि यदि गैंड़ो के टक्कर मारने में पाप नही होता, यदि हाथी के दांत चबाने में पाप नहीं होता, यदि बाघ के नखाघात में कोई पाप नहीं होता, और भैंसे के सींग मारने में कोई पाप नही होता तो मुझे भी कुछ पाप न होगा। इसलिये जगदीश्वर ने हम लोगों को जो जो शस्त्र दिये हैं, दोनों की भलाई के लिये उन्हें चलाऊंगी। यदि कभी―“छड़े झनकाती जाऊंगी” गीत का काम है तो बस अभी―इसी समय। यों विचार कर मैं उन के पास से उठ कर दूर जा बैठी और उनके संग उमंग के साथ बातें करने लगी। वे मेरे पास सर आये, तब मैंने उनसे कहा―‘मेरे पास न आइयेगा। मैं देखती हूं कि आप को कुछ भ्रम हुआ है। (हंसते हंसते ये बात मैंने कहीं और कहते २ जुड़ा खोलकर [सच्ची बात के न करने से कौन इस इतिहास का मर्म जानेगा?] फिर बांधने लगी) आज की कुछ भ्रम हुआ है। सुनिये, मैं कुछ कुलटा नहीं हूं, केवल आप से अपने देश की खोज ख़बर लेनेही की नीयत से आई हूं। बस, मेरा कोई खोटा ममलब नहीं है।”

जान पड़ता है कि उन्होंने इस बात पर विश्वास न किया वरन और भी मेरे आगे सरक आये। तब मैं हंसती हंसती कहने लगी―“ऐ! आप ने मेरी बातों पर ध्यान न