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न्याय से सम्बन्ध

फिर जाता है। उपरोक्त तीनों कठिनाइयों में से अन्तिम कठिनाई से बचने के लिये जो युक्ति सोची है वह इच्छा की स्वतंत्रता कहाती है। दण्ड देने के कार्य को युक्ति-संगत प्रमाणित करने के लिये कहते हैं कि मुजरिम की इच्छा तो स्वतंत्र थी। दूसरी कठिनाई से-अर्थात किसी मनुष्य को उस ही के लाभ के लिये दण्ड देना अनुचित है--बचने के लिये इस बात की कल्पना करली गई है कि किसी अज्ञात समय में समाज के सब सभ्यों ने इस बात का मुशाहिदा ( Contract ) कर लिया था कि हम सब क़ानूनों का पालन करेंगे तथा उनके उलंघन करने की दशा में दण्ड के पात्र होंगे और इस प्रकार या तो अपने या समाज के लाभ के विचार से कानून बनाने वालों को वह अधिकार दे दिया था जो ऐसा न करने की दशा में उनको नहीं होता। यह ख्य़ाल किया जाता था कि दिल को खुश करने वाले विचार से सब दिक्क़त दूर हो गई है तथा दण्ड का देना न्याय-सङ्गत सिद्ध हो जाता है क्योंकि यह बात मानी हुई है कि मनुष्य को उस ही की इच्छा के अनुसार दण्ड देना अनुचित नहीं है। यह प्रमाणित करना अनावश्यक है कि उपरोक्त विचार यदि केवल कल्पना-मात्र न समझा जाय तो भी न्याय का यह उसूल-कि मनुष्य को उस ही की इच्छा के अनुसार दण्ड देना अनुचित नहीं है---अन्य उसूलों से, जो पेश किये जाते हैं, अधिक प्रमाणिक नहीं है। इस बात से पता चलता है कि किस प्रकार बिना किसी नियम का अनुसरण करे न्याय के कल्पित सिद्धान्त ( Supposed principles ) बन जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि यह उसूल तो क़ानूनी अदालतों की सहूलियत के लिये बना लिया गया है। किन्तु क़ानूनी अदालतें भी इस उसूल का पूर्णरूप से