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दूसरा अध्याय

था कि उपयोगिता तथा आनन्द परस्पर विरोधी हैं। प्रत्युत् उन का कहना था कि उपयोगिता का मतलब आनन्द-प्राप्ति तथा दुःख से बचना है। उन लोगों ने उपयोगी को सुखद तथा सुन्दर का विरोधी दिखाने की जगह सदैव यही कहा है कि उपयोगी के अर्थ ही ये हैं कि अन्य बातों के साथ२ सुखद तथा सुन्दर भी हो। किन्तु फिर भी जन साधारण जिन में बहुत से लेखक भी है-जो कि केवल समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं ही में लेख नहीं लिखते हैं वरन् दार्शनिक पुस्तकों के भी रचयिता हैं-इस विषय पर विचार करते हुवे यही मामूली भूल करते हैं। उपयोगितावाद के विषय में बिना कुछ विचार किये ही ये लोग उपयोगिता शब्द को पकड़ लेते हैं और मान बैठते हैं कि यह सिद्धान्त आनन्द के कतिपय रूपों का तथा सौन्दर्य, आभूषण या चित्तरञ्जन का विरोधी है। इस प्रकार की भद्दी भूल इस सिद्धान्त की उपेक्षा करने ही की दृष्टि से नहीं की जाती वरन् कभी कभी इस सिद्धान्त की प्रशंसा करने में भी ऐसी ही भूल की जाती है मानो इस सिद्धान्त का लक्ष्य साधारण बातों या क्षणिक आनंद को महत्त्व देना है।

उस सम्प्रदाय का, जो उपयोगितावाद या सब से अधिक आनन्द के सिद्धान्त को आचार शास्त्र की भित्ति मानता है, कहना है कि जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है उतना ही अच्छा है तथा जो काम आनन्द से जितनी विपरीत-दशा में ले जाता है उतना ही बुरा है। आनन्द से मतलब है सुख तथा कष्ट का अभाव। आनन्द के अभाव का अर्थ है कष्ट तथा सुख का न होना। इस सिद्धान्त द्वारा स्थिर किये गये आचार के आदर्श को साफ़ तौर से समझाने के लिये बहुत सी