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दूसरा अध्याय

की दृष्टि में उस आनन्द से अधिक और कोई आनन्द नहीं हो सकता जो शूकरों की दृष्टि में है। यदि यह कल्पना ठीक होती कि मनुष्य उन्हीं आनन्दों का अनुभव कर सकते हैं जिन का अनुभव शूकरों को होता है तो उस दशा में एपीक्योरियन लोगों (Epicureans) पर किये गये आक्षेपों का कुछ उत्तर नहीं दिया जा सकता था। किन्तु फिर यह आक्षेप किसी प्रकार का इलज़ाम नहीं रहता। क्योंकि यदि मनुष्य और शूकर दोनों के आनन्दोद्गार एक होते तो जीवन का जो नियम एक के लिये ठीक होता वही दूसरे के लिये भी ठीक होता। एपीक्योरियन लोगों के जीवन की जानवरों के जीवन से तुलना करना मनुष्य-जीवन को नीच मानना है क्योंकि जानवर के आनन्द मनुष्य की तुष्टि नहीं कर सकते। जानवर की भूख से मनुष्य की अनुभव-शक्तियां अधिक उच्च हैं। जब एक बार मनुष्य को उन शक्तियों का ज्ञान हो जाता है तो वह किसी चीज़ को आनन्द नहीं मानता जब तक कि उस चीज़ से उन शक्तियों की तुष्टि न हो। निस्सन्देह मेरा यह विचार नहीं है कि एपीक्योरियन लोग (Epicureans) उपयोगितावाद के सिद्धान्त से अपने अनुक्रमों की अनुसंधि बनाने में बिल्कुल निर्दोष थे। पर्याप्त रीति से ऐसा करने के लिये बहुत से तितिक्षावाद (Stoicisim) तथा ईसाई धर्म के तत्त्वों को सम्मिलित करना पड़ेगा। किन्तु ऐसे किसी एपीक्योरियन (Epicurean) सिद्धान्त का पता नहीं है जो मस्तिष्क, अनुभव तथा कल्पना से सम्बन्ध रखने वाले आनन्दों को केवल संवेदना जनक आनन्दों से ऊंचा दर्जा नहीं देता है। फिर भी यह बात माननी पड़ेगी कि साधारणतया उपयोगितावादी लेखकों ने शारीरिक आनन्दों की अपेक्षा मानसिक आनन्दों