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दूसरा अध्याय

रहें तथा बहुत से तथा भिन्न २ प्रकार के सुखों का अनुभव होता रहे तथा कभी कभी-सो वह भी क्षणिक-कष्ट का अनुभव हो। ऐसे मनुष्य जीवन से उस से अधिक आनन्द पान के इच्छुक नहीं थे जितना कि जीवन से प्राप्त होसकता है। जिन मनुष्यों को ऐसे जीवन के उपभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है उन्होंने सदैव ऐसे जीवन को सुखमय समझा है, और अब भी बहुत मनुष्य अपने जीवन के अधिकांश में इस प्रकार के सुख का अनुभव करते हैं। आधुनिक रद्दी शिक्षा तथा दूषित सामाजिक बन्धनों ही के कारण सब मनुष्य इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हैं।

स्यात् अब विरोधी यह आक्षेप करें कि क्या मनुष्य सुख को जीवन का लक्ष्य समझते हुवे, इतने थोड़े सुख से सन्तुष्ट हो जायेंगे। किन्तु बहुत से मनुष्य इस से भी कम सुख से सन्तुष्ट रहे हैं। सन्तुष्ट जीवन के मुख्य अवयव दो मालूम पड़ते हैं-शान्ति तथा आवेश। कभी २ इन में से एक भी पर्याप्त हो जाता है। बहुत शान्ति होने पर मनुष्य थोड़े ही सुख से सन्तुष्ट हो जाता है तथा बहुत आवेश होने पर अधिक दुःख सह सकता है। निस्सन्देह कोई ऐसी समवायिक (Inherent) बात नहीं है जिसके कारण मनुष्य जाति के अधिकांश को इन दोनों का मिलाना असम्भव हो क्योंकि ये दोनों बातें इतनी कम असङ्गत हैं कि दोनों में प्राकृतिक मेल है। इन में से एक का बढ़ाना दूसरी की तैयारी और उस की इच्छा पैदा करना है। केवल वे ही मनुष्य जिनमें आलस्य हद से ज्यादा बढ़ गया है शान्ति के बाद आवेश की इच्छा नहीं करते। केवल वे ही मनुष्य जिनको आवेश की आवश्यकता का मर्ज़ ही होगया है