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दूसरा अध्याय

में तथा मनुष्य जाति की प्राचीन तथा अर्वाचीन दशा और भविष्य आशाओं में अनन्त आनन्द की सामग्री मिलती है। निस्सन्देह ऐसा होना भी संभव है कि कोई मनुष्य इन चीज़ों के आनन्द के सहस्रांश का भी उपभोग किये बिना ही उनकी ओर ध्यान न दे। किन्तु ऐसा होना उसही दशामें संभव है कि जब उस मनुष्य ने आरम्भ ही से इन चीज़ों में किसी प्रकार की नैतिक या मानुषिक दिलचस्पी न ली हो और उन को केवल उत्कण्ठा मिटाने की दृष्टि से देखा हो। कोई कारण नहीं मालूम पड़ता कि सभ्य देश में जन्म लेने वाले मनुष्य को इतनी मानसिक संस्कृति दाय स्वरूप में क्यों न मिले जिस से वह इन विचारशील विषयों में यथेष्ट दिलचस्पी ले सके। कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि क्यों कोई मनुष्य अपनेही ख्याल में मस्त रहे और अपने स्वार्थ से संबन्ध न रखने वाली किसी वस्तु की ओर ध्यान ही न दे। जब आजकल ही--अनेक शिक्षा--सम्बन्धी त्रुटियों तथा निरर्थक सामाजिक बन्धनों के रहते–-अनेक मनुष्य ऐसे देखे जाते हैं जो सर्वसाधारण के लिये तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं तो निस्सन्देह उचित शिक्षा होने पर इस प्रकार के मनुष्यों की संख्या बहुत कुछ बढ़ सकती है। उचित शिक्षा प्राप्त प्रत्येक मनुष्य में, कम या अधिक मात्रा में, इष्ट मित्रों के प्रति शुद्ध प्रेम तथा सार्वजनिक कार्यों की ओर रुचि का होना सम्भव है। ऐसे संसार में, जहां पर चित्तरञ्जन के लिये इतनी अधिक सामग्री है तथा इतनी अधिक बातें सुधारने तथा उन्नतावस्था को पहुंचाने के लिये हैं, साधारण नैतिक तथा मानसिक विकाश प्राप्त प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन को इस प्रकार व्यतीत कर सकता है कि दूसरे मनुष्यों के हृदय में उस को