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उपयोगितावाद का अर्थ


ऐसा ही होता रहेगा । हम आचार शास्त्र का चाहे कोई मूल सिद्धान्त मान लें हमें उसके अनुसार कार्य करने के लिये गौण सिद्धान्तों की भी आवश्यकता पड़ेगी। किसी विशेष सम्प्रदाय पर गौण सिद्धान्त मानने के लिये विवश होने का इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता क्योंकि सब सम्प्रदायवालों ही को ऐसा करना पड़ता है। किन्तु यह कहना कि ऐसे गौण सिद्धान्त स्थिर नहीं किये जा सकते तथा मनुष्य जाति मानुषिक जीवन के अनुभव से अब तक कतिपय साधारण परिणामों पर नहीं पहुंची है और न कभी पहुंचेगी नितान्त मूर्खता है।

उपयोगितावाद के विरुद्ध शेष आक्षेपों में जो बहुधा किये जाते हैं अधिकतर मानुषिक प्रकृति की कमजोरियों का इल्ज़ाम उपयोगितावाद के माथे थोपा जाता है तथा कहा जाता है कि विवेकशील मनुष्यों को अपने जीवन का मार्ग स्थिर करने में बड़ी कठिनाइयां पड़ेगी। आक्षेप किया जाता है कि उपयोगितावादी मनुष्य अपने आप को नैतिक नियमों का अपवाद मान लेगा तथा प्रलोभन मिलने पर नियम को मानने की अपेक्षा उसका उल्लङ्घन करना उपयोगी समझेगा। किन्तु क्या उपयोगितावाद ही ऐसा मत है जिसका अनुयायी होने से हमको दूषित कार्य करने का बहाना मिल सकता है और हम अपने अन्तःकरण को धोखा दे सकते हैं? सब सिद्धान्त इस बात को मानते हैं कि आचार शास्त्र में परस्पर विरोधात्मक परिभावनाएं (Considerations) उपस्थित होती हैं अर्थात् यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि कौनसी बात आचारयुक्त है। यह किसी मत विशेष की त्रुटि नहीं है। इसका कारण मानुषिक कार्यों की जटिलता है जिसके कारण आचार के अपवाद रहित नियम नहीं बनाये जा सकते। किसी भी