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तीसरा अध्याय


सदसद्विवेकिनी भावनायें। निस्सन्देह इस सनद से वे मनुष्य उपयोगितावाद को मानने के लिये वाधित नहीं किये जा सकते जिनमें इस प्रकार की भावनाएं नहीं हैं जिनको यह सिद्धान्त उत्तेजित करता है। किन्तु ऐसे आदमी तो अन्य किसी नैतिक सिद्धान्त के भी उपयोगितावाद के सिद्धान्त से अधिक आज्ञाकारी नहीं होंगे। ऐसे लोग तो वाह्य कारणों से ही किसी कार्य की प्राचारयुक्तता मान सकते हैं। किन्तु यह बात निस्सन्दिग्ध है कि इस प्रकार की भावनाएं मनुष्यों में हैं। अनुभव अर्थात् नजुरबा इस बात को प्रमाणित करता है कि ऐसी भावनाएं हैं तथा उन मनुष्यों पर, जिनमें इस प्रकार की भावनाओं का उचित रीति से विकाश किया गया है, प्रभाव डालती है। कभी इस बात का कोई कारण नहीं बतलाया गया है कि ये भावनाएं अर्थात अन्तगत्मा इस प्रकार विकसित क्यों नहीं की जासकती कि जिससे अन्य प्राचार विषयक नियमों के समान उपयोगितावाद के अनुसार कार्य करने के लिये भी समान शक्ति से उत्तेजित करे।

मुझे मालूम है कि कुछ लोगों का ऐसा विश्वास है कि ऐसे मनुष्य, जो प्राचाग्युक्तता का आधार किसी इन्द्रियातीत (Transcendental) बात को मानते हैं अर्थात् इस ही कारण से किसी कार्य को करना ठीक समझते हैं क्योंकि वह ठीक है, अपनी अन्तगत्मा ही को प्रमाणिकता का प्राधार मानने वाले मनुष्यों की अपेक्षा अपने पक्ष से कम विचलित होंगे। किन्तु अध्यात्म-शास्त्र की इस समस्या के संबन्ध में किसी मनुष्य की कोई सम्मति क्यों न हो, वह शक्ति जो वास्तव में मनुष्य को कार्य करने के लिये उत्तेजित करती है उस ही की