पृष्ठ:उपहार.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६६


शान्ति-सरोवर ३६२१ मेरे स्वामी! यह तो हो ही नहीं सकता कि मेरे पत्र श्रापको मिलते ही न हो। क्षण भर के लिए यह मान भी लिया कि मेरे पत्र श्रापको मिले ही नहीं। फिर भी क्या एक कार्ड पर दो शब्द लिखकर श्राप मेरे पत्र न भेजने कारण न पूछ सकते थे? खैर, श्राप अपनी मनमानी कर लीजिये । मैं है भी इसी के योग्य, कहा भी गया है-जैसा देव वैसी पृजा। आपने मुझे ठुकराकर, मेरी अवहेलना कर के उचित ही किया है। इसमें में श्रापको दोप कैसे दूं? जिसका जन्म ही अपमान, अवहेलना और अनादर सहने के लिये हुअा हो यह उससे अधिक अच्छी वस्तु की श्राशा ही क्यों करे? मैं अपने श्रापको भूल गई थी। श्राज मेरी आँखे खुल गई। मुझे अपनी थाह मिल गई। मेरी समझ में आ गया कि मैं कहाँ हूँ। परमात्मा ने स्त्री-जाति के हृदय में इतना विश्वास, इतनी कोमलता और इतना प्रेम शायद इसीलिये भर दिया है कि वह पग-पग पर ठुकराई जावें। जिस देवता के चरणों पर हम अपना सर्वस्व चढ़ाकर, केवल उसको कृपा-दृष्टि की भिखारिणी बनती है, यही हमारी तरफ आँख उठाकर देखने में भी अपना अपमान समझता है। माना कि मैं समाज की आँखों में श्रापकी कोई नहीं। किन्तु एक बार अपना हृदय तो टोलिये, और सच यतलाइये क्या मैं श्रापको कोई नहीं हैं। समाज के सामने अग्नि को साक्षी देकर हम विवाह-सूत्र