पृष्ठ:उपहार.djvu/१०४

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[ ३ ] पत्र पढ कर मैंने एक ठंडी सास ली और करवट बदली, देखा- न जाने कपसे मेरी स्त्री सुशीला मेरे सिरहाने खडी है। मुझे देखते ही वह भागी, मेंने दौडफर उसकी धोती पकड ली और उसे पलंग तक खींच लाया। उसे जबरन पलंग पर बैठाल कर मेंने पूछा कि-"तुम भागी क्यों जा रही थी "तुम बडे कठोर हो" उसने मुँह फेरेही फेरे उत्तर दिया-- "क्यों ?" में ने उसका मुंह अपनी तरफ फरते हुए पूछा- "मैं कठोर फेसेह?" अपनी आँखों के श्रासू पोछती हुई यह योली- यदि तुम निभा नहीं सकते थे, तो उस बेचारी को इस रास्ते पर घसीटा ही क्यों"? मुझे हंसी श्रागई, हाला कि प्रमीला के पनों को पढने के बाद, मेरे हृदय में भी एक प्रकार का दर्द सा हो रहा था। मुझे स्त्रियों की सहायता, उनकी विवशता और उनके कहा से बडी तीन, मार्मिक पोडा हो रही थी। मैंने किंचित मुस्कराकर कहा- "पगली यह पन मेरे लिये नहीं लिये गये"। उसकी भ तन गई, चोली-