पृष्ठ:उपहार.djvu/१४८

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पूर्ण धर्ताव किया है। श्राप का पूरा नाम तो अभी कार्ड पर ही देखा।" इस के बाद ग्रजांगना ने अपने पति से शाम के समय का अंगूठी के खोने का, सारा किस्सा पति से कह दिया। मैंने जेष से अंगूठी निकाल कर धीरे से व्रजांगना के सामने रख दी। अंगूठी पाकर वह कितनी प्रसन्न थी, यह उसकी कृतज्ञता भरी श्राखों ओर उल्लास भरे चहरे से ही प्रगट हो रहा था। नवलकिशोर जी के चेहरे पर कुछ अधिक भाव परिवर्तन न हुधा । वह केवल जरासा मुस्करा कर बोले- "और यदि यह अंगूठी न लाते तर फ्याकरतों विरजो?" ग्रजांगना ने विश्वास-सूचक स्वर में कहा- "लाते कैसे नहीं ? अंगूठी तो मैंने इन्हीं के ऊपर छोडी थी न ? सबके भरोसे थोड़े में अपनी यह अंगूठी छोड़ भातो"? नवल किशोर थोडा फिर मुस्कराए। हंसी तो कुछ मुझे भी आई । परन्तु यह सोचकर कि प्रथम परिचंय में ही हसने को स्वतंत्रता लेना कहीं मेरे पक्ष में अशिष्टना न समझी जाय मैंने अपनी हंसी को रोक लिया; पर एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में वार-चार घूमने लगा आखिर बिना परिचय के और विना जान पहिचान के ब्रांगना ने मुझ में कौन सी ऐसी वात देखो जो वह मुझ पर इतना विश्वास कर यैठो १ चेहरे से मैं नवलकिशोर को पहिचानना था, और वह मुझे, परन्तु हमारा प्रापस में परिचय न था। उस दिन इस प्रकार उस अंगूठो ने हमारा श्रापस में परिचय कराया। उनके प्राग्रह से उस दिन मेंने उन्हीं लोगों के साथ चाय ली और उनके अनुरोध से कभी कभी उनके घर माने जाने भी लगा। कुछ दिन उन लागों के यहां माने जाने के बाद, मैंने