लडकी! बेचारी की यह अभिलाषा न मायके में पूरी होती
है और न ससुराल में ही। और अन्त में बहुत-कुछ वही
उसके नैतिक पतन का, उसके सर्वनाश का कारण बन
जाती है। परिस्थितियाँ उसे विवश कर देती है; दुर्दान्त
मोह उस पर अपने अमोघ अस्त्रों का प्रयोग करता है।
ग़रीब बिन्दो मानवीय दुर्वलतायुक्त एक बालिका ही
तो ठहरी! लोभ का संवरण करना धीमे धीमे उसकी शक्ति के
बाहर हो जाता है; और अन्त में एक दिन किसी विचार-शून्य
क्षण में वह अपने आपको, कुछ तो कठी की लालच का
और कुछ एक नर पशु की हिंसक वृत्ति का, शिकार बना
बैठती है। एक छोटी सी इच्छा को तृप्त करने का प्रकृति
उससे कितना भयंकर मुल्य लेतो है, सोचकर जी दहल
जाता है। किन्तु बिन्दो के जीवन की करूण कथा यहीं नहीं
समाप्त हाती। इस पतन के साथ तो सिसकता सन्तोष क्षण
भर को शांत हो सो सकता था, इस अंत के सँग तो इच्छा को
पूर्ति दफनायी जा सकती है। इतना सुख भी किसे सह्य हो
सकता है? एक आघात ओर; और बिंदो का उन्माध अपनी
अपनी भूमि पर होगा। यही कलाबिंदु की कहानी का वांछित
अंत हो सकेगा। वही अंतिम अकन बहुत गहरा होगा; वही
प्रभाव चिरस्थायी होगा। सत्य के इस दारुण स्वरूप
को पाठक बिंदो के साथ देखें। वह कंठी, जिसे बिंदा
ने अपने सतीत्व श्रृंगार को उजाडकर खरीदा है, सोने
की नहीं, मुलम्मे की है। यह निर्मम सत्य, यह निष्ठुर, क्रूर
सत्य, बिंदा के ही नहीं, पाठक के सिर पर भी वज्र गिरा देने
के लिए काफ़ी है। फिर यह वज्र अकस्मात् आ गिरता है।
पाठक तो क्या, स्वयं बिंदो अपनी कंठी की कहानी के इस
अंत के लिये तैयार नहीं हो पाती।
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