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इच्छा या आज्ञा का कोई कारण उपस्थित करने के लिए तैयार नहीं रहता। उसके औचित्य के सम्बन्ध में यदि कोई प्रश्न करता है--विशेषत यदि वह प्रश्न उसकी पत्नी करती है-- तो वह उससे खीझ उठता है। इस कहानी में पति की इसी प्रवृत्ति का निदर्शन हुया है। ईर्षा के साथ मैत्री को उपस्थित कर लेखिका ने हमारे सामने एक अनोखी बात रखी है। ईर्षा का यह असाधारण रूप हमारे ध्यान को आकर्षित कर लेता है। प्रारम्भ में बालिका विमला (बिनो) और बालक अखिल बारापी-सम्बन्धी वार्तालाप बड़ा मनोरंजक और हृदयहारी है। बाल-स्वभाव के चित्रण में कुमारी जी को अच्छी सफलता मिली है। यह कहानी भी सुन्दर हुई है। हां, विमला और विनोद के विवाह की भूमिका में जो चार पृष्ट (७९-८२) भर दिये गए हैं व अनावश्यक ओर अप्रासगिक- से दीखते हैं। कहानी का अन्तिम वाक्य भी मुझे सुरुचि के प्रतिकूल जँचा।

अंगूठी की खोज--अनमेल विवाह का फल इस कहानी का जन्म-स्थान कहा जा सकता है। हिन्दू माता- पिता अपने पुत्र का तो शिक्षा-दीक्षा दिलाना आवश्यक समझते हैं परन्तु पुत्रियों की शिक्षा और उन्नति के लिए यह विशेष उत्सुक नहीं रहते। बालिकाओं को तो गृहस्थी के काम में निपुग बनाने तक ही वे अपना कर्तव्य समझते हैं। किन्तु उनकी ही इच्छा के अनुसार उनके बालक, आधुनिक शिक्षा और सभ्यता से प्रभावित होकर अपनी पती, अपनी अर्धोगिनी से क्या-क्या आशा करते हैं, इसे नहीं देखना चाहते। माता-पिता और पुत्र के दृष्टि कोण की यह भिन्नता पुत्र-पुत्रियों के पक्ष में बहुधा बड़ी हानिकर सिद्ध होती है।