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या उसके प्रति उदासीन नहीं रह सकते। उसका प्रत्येक सम्पर्क हमारी संवेदन-शक्ति और हमारी सहृदयता को जागृत करता है; उसका हर स्पर्श हमारी रागात्मिका प्रकृति को संधुक्षित कर, हमें अपने में हठात् प्रवृत्त, करा लेता है। मानवता के नाम पर हमारा आहान कर मानों वह हम से कहता है-

आओ, मेरे समीप आओ। मैं तुम जैसा ही एक मानव हूं। मुझ में भी तुम्हारे ही गुण-दोष, तुम्हारी दुर्वलता और तुम्हारी ही क्षमता है। मुझ में भी वही मनोविकार मिलते हैं जो तुममें हैं। शरीर सम्बन्धी मेरे मन के भी प्रायः यही अनुभव हैं जो तुम्हारे मनके मैभी संसार-संघर्ष में कभी सफल होता हूं कभी विफल । दुख और पीड़ा से कभी फराह उटता हूँ, सुख और आनन्द से कभी उछल पड़ता है। क्रोध घृणा, प्रतिहिंसा, दया, प्यार, सहानुभूति का मुझ में भी बारी-बारी से उदय होता है। मेरा जीवन-पट भी सुख-दुख के धूप-छांहो डोरों से युना हुआ है। मेरे जीवन जगत में भी आलोक घोर अन्धकार आशा और निराशा, उत्थान और पतन क्रम-क्रम से आते जाते हैं। मैं तुम्हीं में से तो एक है। यह देखो! समय की चपल सरिता किस तीव्र वेग से हमारे इस क्षुद्र जीवन-तृण को बहाती चली जाती है। कौन कह सकता है, कब और कहां वह इसे फेक देगी? और यह प्रबल परिस्थितियों का प्रचण्ड प्रेत ! आकाश-भेदी पर्वत- धेसी पर आरूढ़ इस भीमकाय, विकराल पिशाव को तो देखा। यह हम जैसे कितने ही अल्पप्राण, कृपकाय, अक्षम वामनों को उस उत्तुंग शिखर पर से, शिखा से लटका कर हमारे वायु-अलव पर केसा कूर अट्टहास करता है। तय आओ, मेरे और भी निकट आया। हम अपने मिथ्या आचरण को