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सचरित्रता समुपस्थित होकर व्यतिरेक द्वारा अपनी उज्ज्वलता सहज ही भासित करने लगती है।

कुछ लेखिका के शैली-समन्वय क सम्बन्ध में भी कह देना उचित होगा। पहली बात,जो कोई भी पाठक इन कहानियों को पढने के बाद कह देगा, यह है कि लेखिका अकारण चितन या निनिमित्त निष्कर्ष निकालने के लिये अनावश्यक व्रिथाम लेकर अपनी कहानी के स्निग्ध-प्रवाह में बाधा नहीं बनती। विवेचनात्मक विचारों या सिद्धात-वाक्यों का यह बहुत- कम प्रयोग करती है। सिद्धात या निष्कर्ष निकालने का भार, पात्र के कार्यों की पग पग पर आलोचना प्रत्यालोचना करने का उत्तर दायित्व और अपने शब्दों में मानव स्वभाव- निश्लेषण फी सतर्कता यह अपने चतुर पाठक पर ही छोड़ती जाती है। यह तो एक व्यापार से दूसरे व्यापार पर चलती है। यह कहानी की शृंखला को सुदृढ बनाए रहता है। उसकी रोचकता में किसी प्रकार भी कमी नहीं होने देता। मेरे कहन का यह तात्पर्य नहीं कि कुमारी जी की कहानियों में ऐसे विवेचना, व्याख्याओं, आलोचनाओं और सिद्धान्तों के दर्शन भी नहीं हाते । मेरा अभिप्राय केवल इतना है कि लेखिका अपने कहानी-जगत में बार-बार व्याख्याता धन का प्रत्यक्ष रूप से हमें यह स्मरण दिलाने के लिए नहीं आती कि जिसे हम देस या सुन रहे हैं यह वास्तविक घटनाक्रम नहीं, एक विद्वान् आलोचक की कृति है। विवेचनात्मक और सिद्धातपूर्ण वाक्यो का उसने बहुत कम प्रयोग किया है, जैसा कि मेरी समझ में पक कहानी में होना भी चाहिए। और जहां वे प्रयुक्त हुए हैं यहा ये युक्ति सगत, यथा स्थान और विशेषत कहानी को प्रगति को