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रसों के संचार से भी लेखिका को सुरुचि और सतर्कता का परिचय मिलता है। यह पाठक की भावुकता तथा सहृदयता को सस्ता नहीं ठहराती। पात्रों के भावों और मनोविकारों को भी वह समुचित महत्व देती है। यदि वह किसी में कोई मनोविकार उत्पन्न करती है तो उसके लिए पर्याप्त कारण उपस्थित कर देती है। स्थिति, घटना और अवसर उसके अनुकूल आ जाते हैं। वही उसके कारण दिखते हैं। लेखिका के पक्ष में कोई आतुरता या प्रयास नहीं लक्षित होता । फिर प्रत्येक मनोवेग संक्षिप्त और अपने गम्भीर रूप में ही व्यक्त होता है। यह सीमित, समयध्द और समप्रमाण रहता है । करुण रस का संचार करने वाला एक स्थल देखिए । असहाय, मरणासन्न कुन्दन अपनी स्थान की रानी होना को सहसा अपने सम्मुख पाकर कह उठता है-

"छोटी रानी, अच्छा हुया जो तुम आ गई। थोड़ा पानी पिला दो, मैं बहुत प्यासा हूँ।"

[उन्मादिनी]

करुण-जनक कितनी संक्षिप्त फिर भी कितनी तीव्र, कितनी नियंत्रित फिर भी कितनी हृदय स्पशिणी अभिव्यक्ति है। कुन्दन का यह वाक्य सुनते ही जैसे श्रोता के कानों में गूंजने लगता है-अच्छा हुआ जो तुम आ गई। किसी साधारण से लेखक के हाथ में पड़कर यही कुन्दन ऐसी स्थिति में दुपातिरेक से नाटकीय स्वर-शब्द-भाष-मंगी के साथ कुछ इस प्रकार बोल उठता-

कौन हीना रानी! पात्रो, तुम अच्छी आयी । तुम्हें देखने के लिए हो तो मेरे यह विकल माण छटपटा रहे थे। तुम्हारे दर्शन की लालसा ने ही इन आंखों को अब तक