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गर्भित है, औद्धत्य और क्रूरता नहीं । हम चाहे उससे सहमत न भी हों, किन्तु फिर भी हम उसे पढ़कर प्रसन्न ही होंगे, क्रोध से उन्मत्त नहीं, हम आघात से तिलमिला नहीं उठते । यह हास्य सीमित और शिष्ट है, संक्षिप्त और सार्थक है, पर्यायोक्तियुक्त और प्रभावपूर्ण है। प्रत्युत्पन्नमति का एक उदाहरण हमें वेश्या की लड़की में मिलता है। प्रमोद के माता- पिता कंगन के सम्बन्ध में बात-चीत कर रहे है-

"ऐसे कंगन मेरे रिये तो कभी न लाए. अपनी बहू के लिए कैसे चुपचाप खरीद लाए, किसी को मालूम भी न हुआ।"

"अरे तो ऐसे कंगन के लिए कलाई भी तो वैसी होनी चाहिए।"

पाठक देखे यह हास्य भी एक हलकी मुस्कान को ही जन्म देता है। इसकी तह में पात्र या लेखक की विपद चित्त-तरंग और निर्दीप आनन्द-वृत्ति ही है, उसका वक्र भाव नहीं। यह अत्यन्त विनोदपूर्ण और मनोरंजक है। कहानियों में रसों का इस प्रकार संचार कला के उत्कर्ष तथा लेखिका की सुरुचि और उसके कोमल स्वभाव का परिचायक है।

भाषा को दृष्टि से भी कुमारी जी की कहानियाँ स्वाभाविक और सजीव उतरती हैं। कुमारी जी जिस प्रकार फी भाषा लिखने में दक्ष है, वह कहानी के लिए सर्वथा उपयुक्त है। सीधी-सादी, लोचदार, यामुछायिरे तथा आडम्बरशून्य भाषा ही वे लिखा करती हैं। उनके गद्य में तो क्या, पद्य में भी यही भाषाप्रयुक्त होती है। मैं समझता हूँ कम-से-कम कहानी में तो इसकी उपयोगिता तथा श्रेष्ठता निधिंवाद सिद्ध है। कुमारी जी की यह सरल, सरस, बोल-चाल की भाषा कहानी के वर्णन और कयोपकथन में जो स्यामाषिकता और सजीवता ला देती है, यह अलंकृत,