पृष्ठ:उपहार.djvu/५३

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जाता था। उसके स्वभाव में कितनी नव्याधी थी, वह मेहनत । के काम से कितना वचता था, मुझसे छिपा न था, किन्तु अब वह कितना परिश्रम कर रहा है ! मुझे चिन्ता रहती थी कि उसका सुकुमार शरीर इस कठिन परिश्रम को सह न सकेगा। में चाहती थी कि किसी प्रकार उसे रोक दूं यह काम वह छोड़ दे, परन्तु कैसे रोकती, उससे बात करने की मुझे इजाज़त ही कहाँ थी? पहिले की अपेक्षा अब में बगीचे में अधिक आने जाने लगी । पहिले तो इस आने जाने पर किसी ने ध्यान ही न दिया किन्तु कुछ ही दिन बाद टीकाटिप्पणी होने लगी। बाद में रुकावट भी पड़ने लगी. जिसका परिणाम यह हुआ कि अब शाम-सुबह छोड़कर में प्राय दोपहर को जाने लगी। में कुन्दन से दो मिनट के लिए बात करने का अवसर खोजा करती थी, किन्तु मेरे पीछे भी लोग जैसे जासूस की तरह रहते थे। मैं एकान्त कभी न पाती और सब के सामने उससे बात करने का साहस न होता। कभी कभी मैं उसके नजदीक भी पहुंच जाती तो भी वह मेरी ओर आंखउठाकर न देखता में ही उसे देख लिया करती। अनेक बार जी चाहा कि आख़िर कब तक ऐसा चलेगा, जाऊ, उसकी कुदार छीन कर फेंक दूं और उसे अपने साथ लिवा लाऊ, अब उसकी तपस्या आवश्यकता से अधिक हो चुकी है उसे अब मेरे निकट रह कर मेरे स्नेह की शीतल छाया में विश्राम करना चाहिए ।

उस दिन बड़ी गरमी थी। बन्द कमरे में पंखा और खस की टट्टियों के भीतर से में उस गरमी का अन्दाजा न लगा सकती थी। नींद न आरही थी, न जाने क्यों एक प्रकार