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से मिल सकता है। मैं उससे केवल स्वतंत्रता से बात चीत करना और मिलना जुलना चाहती थी और यही मेरे पति देव को स्वीकार न था।

नौकरों को यह मिट्टी के ठीकरों से भी अधिक गया बोता समझते थे। वह ११) माहवार देने के बाद समझते थे कि उन नौकरी की आत्मा और शरीर दोनों को उन्होंने खरीद लिया है । उनसे इतनी सख्ती से पेश आते कि नौकरों को उनके सामने पहुंचने में बड़े साहस से काम लेना पड़ता। इधर कुन्दन से एक दिन खुलकर बात चीत करने के लिए रात दिन मेरे मस्तिष्क और हृदय में युद्ध छिड़ा रहता; अब न मुझमें पढ़ा लिखा जाता और न किसी काम में ही जी लगता । खाने पीने की तरफ़ भी कुछ विशेष रुचि न रह गई थी। खाना देखते ही वह दिन याद आ जाते जब मैं और कुन्दन दोनों एक ही थाली में बैठकर खाया करते थे। चाय सामने आते ही कुन्दन की याद आ जाती मुझसे भी भी अधिक चा का भक्त तो वही था। और आज-आज वह मेरे बगीचे में माली है और मुझे इतनी भी स्वतंत्रता नहीं कि उससे एफ दो बात भी कर सकू, फिर उसके साथ बैठकर चा पीना और भोजन करने की बात तो बहुत दूर की रही।

मैं रात दिन इसी चिन्ता में घुली जाती थी। किन्तु मेरी पीड़ा को कौन पहिचानता? अपने इस घर में तो मुझे सभी हृदय-हीन जान पड़ते थे।

एक दिन आफिस से लौटते ही पतिदेव ने मुझसे प्रश्न किया, "आखिर उस माली से तुम्हें क्या बातें करनी