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फिर उसकी आंखों के सामने वही रायसाहब की लड़कियां और वही गहने-कपडों का प्रदर्शन होने लगा। उसकी सोई हुई आभूषणों की आकाक्षा फिर से जाग उठी। वह सोचने लगी कि क्या इस जीवन में मेरी अभिलाषा कभी पूरी नही होगी? तो फिर ईश्वर ने मुझे इतना रूप ही क्यों दिया किन्तु विधि के विधान पर किसका जोर चलता?

रायसाहय निर्मूलचंद चालीस के उस पार पहुच चुके थे, किन्तु फिर भी उनमें रसिकता की माना आवश्यकता से अधिक थी। वे प्राय सिनेमा देखने जाया करते थे, किसी अच्छी कहानी या एकटिंग के लिए नहीं, घेवल सुन्दर चेहरों को देखने के लिए। उन्होंने सब तीर्थ भी कर डाले थे, और प्राय पर्वों पर सब काम छोड़ करभी वे स्नान-घाटों पर पहुच जाते थे। किसी प्रकार के पुण्य-लाभ की उन्हें इच्छा रहती थी या नहीं, यह तो ईश्वर जाने, किन्तु स्नान करतो हुई युवतियों के अंगप्रत्यंग की ताक-झाक की उत्कट इच्छा उनके चेहरे पर कोई भी साफ देख सकता था। वे काश्मीर और नैनीताल भी अक्सर गर्मी की छुट्टियों में जाया करते थे, किन्तु ये जलवायु परिवर्तन के लिए जाते थे या और किसी उद्देश्य से यह नहीं कहा जा सकता। ये सुन्दर स्त्रियों के पीछे अनायास ही मीलों का चक्कर अवश्य लगा आते थे।

वे बहुत कुरूप थे। इसलिए सुन्दरी की बात तो अलग रखिए कोई कुरूप से कुरुप स्त्री भी उनकी तरफ आँख उठा कर देखने में अपना अपमान समझती थी, इसलिए प्रायः गन्दे मजाक करके ही वे अपनी वासना की तृप्ति पर लिया करते थे। इसके अतिरिक्त वे परोपकारी भी थे। उनके घरएक नामीगरामी वैद्यराजरहा करते थे, जो रायसाहब केमित्रों और