पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१००

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ऊम्मिला अब (३१) यही भाव, यह अपनेपन का अति विशुद्धतम रूप निहार- सब पागल-सी हो जाती है देख सुमित्रा की मनुहार , बड़े भाग लक्ष्मण लाला के- हाथ आ गए इस बाला के, छोड धनुष वे विचरेगे बने कुसुम उस की माला के, आर्य-देश की कुल-ललनाएँ हुलस उसे अपनाऍगी, उसको अपने पूजागृह मे वे अादर्श मनाएंगी । (३२) वह लज्जा की मूर्ति, उम्मिला बहू सौम्य-सुठि की प्रतिमा, आत्म-निवेदन की छोटी सी मूरत है वह गुण-गरिमा वीर सुधन्वा लखन-चरण मे- ढरक रही है वह क्षण-क्षण मे, मानो चिर वियोग के आँसू,- प्रिय-पादाम्बुज के रज-कण मे, नारी की निष्ठा का ऐसा उज्ज्वल उन्नत रूप कहाँ नेह सुधा के मधुर रसो का उमड रहा है कूप यहाँ । ? ऑखो को देखो-रामानुज-नेह-जाल में फंसी हुई, मिथिला-सर से युगल मछलियाँ आ पहुंची है गॅसी हुई , क्षण में ये मचले चचल-सी,- लखन नाम सुन के, निश्छल-सी, क्षण में ये नीरव हो जावे- प्रकृत नटी के जड अचल सी, सच मानो ऊम्मिला, मुरलिका के सुदूर निक्क्वण-सी है, अथवा विस्मृत निज स्वरूप के सहसा पुनर्मरण-सी है ।