पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०१

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द्वितीय सर्ग (३४) अहो । अभी नन्ही है, फिर भी बरबस जिया चुराती है, खीच हमारे प्राण, न जाने चतुरा कहाँ दुराती है ?" यह सुन एक सखी यो बोली- "ज्ञात न तुम्हे ? बडी हो भोली ! चोरी मे आधा-साझा है, तुम तो हो उसकी हमजोली । जहाँ चरा कर चित्त हमारे विमल उम्मिला धर आई रच बता दो ठौर वही, सखि, मै बलि गई, परौ पाई ।" प्रथम दरस "आर्ये, मेरे भाग कहाँ जो मै उसकी सगिनि होऊँ, चरण-धूलि भी यदि पा जाऊँ तो अति बडभागिनी होऊँ, मै तो उसके हाथ बिकानी, ही मे अरुझानी, हृदय-खड हिम-खड बना था,- हुमा प्राज यह यो कहते-कहते उस ललना के दो लोचन छलक गए, ज्यो सन्ध्या वन्दन के जल से तुलसी के दल पुलक गए । पानी-पानी, अब तक तरुणी एक ध्यान से सुनती थी चुपके-चुपके, वह आगे बढ कर बोली-"मैं सुनती रही तुम्हे छुपके, किन्तु निरी हो गौएँ तुम सब, वधुओ के मुख-दर्शन की तुम्हे न आई सपने में भी , अब सुन लो कुछ मेरे कर्तब , तुम तो गई , बलयाँ ले ली बहुत हुआ शर चूम लिया, यह क्या ? जब तक हो न ठठोली तब तक हो क्यो शान्त हिया ? .८७