पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०२

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अम्मिला (३७) मैं पहले सीता से सस्मित बोली पर, कुछ डर, मन मे, 'बतलाओ, क्या ललित सम्मिलन रहता गहन वेणु-वन मे?' यह सुनते ही वे कुछ हिचकी, कुछ गभीर हुई, कुछ झिझकी, फिर गौरव से आँख उठाकर- 'यह मर्याद आपकी निज की कि यो प्रथम परिचय मे स्वागत करती है उपहासो से, या कि अवध मे स्वागत होता है यो सूखे बॉसो से ?' (३८) क्षमा याचना कर मै पहुंची माण्डवि, श्रुतिकीरति के पास, वे है सीधी-सादी मानो भोलेपन की हो उच्छ्वास , सब को देख अन्त मे जा कर, देखा वह मुख-कमल उजागर, जिसकी मौन-मूर्ति की तुम सब- मुखरित होती हो, पूजा कर, उसे देख फिर से उद्गीरित वे ही वचन हुए क्षण में 'बतलाओ, क्या ललित सम्मिलन रहता गहन वेणु-वन मे?' (३६) 'मानवता से दूर, मिलन का नीड बना यदि निर्जन मे,-- तो फिर अवध-बास छोडो तुम जाओ आर्ये घिन वन मे,' यो बोली हँस हँस वे बोली, लली उम्मिला सलोनी, मानो मम विनोद भिक्षा की- उन ने हंस कर भर दो झोली , मै उन पर हो गई निछावर, सुघड लली ने खीची डोर मोद-चग चढ़ गई गगन मे गूजा मन मृदग का घोर ।" जनक