पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०३

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द्वितीय सर्ग सब (४०) सुन-सुन यह विनोद वर्णन, सब नव बालाएँ वृद्धाएँ, हरख उठी ज्यो हरि-कीर्तन से विकसित होती श्रद्धाएँ , सरयू का रमणीय तीर वह- जहाँ जुडी कोकिला-भीर वह- मुखरित हुआ, समीर डुल उठा, तरल ताल दे उठा नीर वह , मेरी मृदु कल्पने, छोड तू अब कागद की अह नैया, स्नान करेगी अब ये त्रेता के युग की आर्या मैया । (४१) चलो देखने नृप दशरथ का वैभव पूर्ण भव्य प्रासाद, अन्त पुर मे चारो वधुएं हरती जहाँ समस्त विषाद , ये वधुएँ नई नवेली, संग लिए निज सखी-सहेली, कौन खेल वे खेल रही है ? किधर ढुरकती है अलबेली ? मॉ कौशल्या और सुमित्रा को किस भाति रिझाती है रच देख ले, श्वसुर-सदन मे कैसे काल बिताती है ? (४२) पर चलने के पूर्व यहाँ से कर ले तू वन्दन अभिराम- इस सरयू सरिता का, जिसकी बालू में खेले है राम , रघु ने जहाँ तपस्या करके,- आर्य-धर्म पाला जी भर के, जहाँ दिलीप सुधन्वा विचरे- राजदण्ड शुभ कर मे धर के, आर्य सभ्यता के प्रकाश का एक अश जिन कूलो से- फैला, वही चढा दे अजलि तू आँखो के फूलो से । ? ८६