पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०४

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ऊम्मिला 7 2 (४३) सिकता के कण-कण मे सौ-सौ निहित हुई है सुस्मृतियाँ, अणु-अणु मे है अश्वमेध की छिपी हुई शत-शत कृतियाँ जहाँ भानुकुल उदित हुआ है, जहाँ न्याय डुल मुदित हुआ है, सरयू का वह तीर सुहावन- आज नेह- निरित हुआ है रजकण, जलकण, बालू के अणु स्वनित वायु मे मिले, अहो,- उडे जा रहे नभ वक्षस्थल करने क्या स्नेहार्द्र, कहो ? (४४) सदा काल से तुम बहती हो सीधी, स्रोतस्विनि, सरयू, आज बहा दो उलटी धारा, मानो हे स्वामिनि, सरयू, तनिक देर उलटी बह जाओ, वर्तमान को हटाओ, देश काल का तोड कुबन्धन- उस अतीत के गर्भ समानो, मम कल्पना, लेखनी मेरी तनिक लिए जाओ तुम साथ, कुछ बटोर लाएंगी जो कुछ आ जायेगा इनके हाथ । (४५) किन्तु, नही, जाने दो, यह तो भ्रान्त चित्त की बिनती है, ? अलि, अतीत के अन्तस्तल मे मेरी क्या कुछ गिनती है कल्पना यही पर- विचरे त्रेता युग के भीतर, हरिश्चन्द्र-रघुकुल सरिता यह- वेगवती, है वह अति दुस्तर , मुझ को यही ऊम्मिला-लक्ष्मण के चरणो में रहने दो, ललित व्याह की लजवती इस कालिदी मे बहने दो । मेरी यह 68