पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०६

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ऊम्मिला (४६) और तुम्हे क्या कहूँ उल्लसित सरयू की चपला धारा, युग युग लौ उडेलती जागो तुम यह तरल प्रेम सारा , अवधपुरी की नेह-पाश हो, रघुकुल की तुम गलित श्वास हो, शतियो की इतिहास लेखिका- प्रिय अतीत का शुभ-प्रकाश हो , बनी करधनी, कौशल जन-पद की तुम सब कुछ जानो हो, वर्तमान का मधुर स्वाद यह अनुभव से पहचानो हो । (५०) श्री अम्मिला-कीत्ति-गाथा यह तुम ने सुन ली मन देकर, मुझे बताना जब मैं आऊँ अपना दुखित हृदय लेकर , अपने जन को भूल न जाना, मुझे कहाँ है और ठिकाना ? इधर-उधर से फिर-फिर कर के यही खिचेगा मन दीवाना शोक-तप्त, लौकिकता-ज्वर से पीडित यह अपना माथा, जब ला रखू गोद मे, तब तुम कहना यह अतीत गाथा । (५१) और तुम्हारी गाथा होगी-यही ऊम्मिला की बतियाँ, कह-सुन जिन्हे पसीजी अखियाँ, धक-धक धरक उठी छतियाँ, प्रात वायु में डोल उठी जो,- दशरथ के गृह जाय लुटी जो,- लखन-जाया के- सिहर उठी ज्यो पर्ण कुटी जो,-- उन ललनायो ने, सरयू, तव विमल कूल में जो गाया, आज सवेरे, वही गान हो गया हिये की लघु माया । . करके दरस १२