पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०७

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द्वितीय सर्ग 'चलो देखने अब दशरथ का भव्य विशाल, सुखद प्रासाद जहाँ चार वधुएँ अन्त पुर म छिटकाती है आह्लाद, वे सब वधुएँ नई नवेली, सग लिए निज सखी सहेली, कौन खेल वे खेल रही है ? किधर छुप रही है अलबेली ? माँ कौशल्या और सुमित्रा को किस भाति रिझाती है रच देख ले, श्वसुर-सदन मे कैसे काल बिताती है । ? जाना तू, 1 1 अन्त पुर की द्वार देहली पे बाहर रुक चरण चिन्ह ऊम्मिला बहू के देख, सम्हल पग धरना तू इधर उधर मत फिरती रहना, अपने मुख से कुछ मत कहना, हृदय-पटल पर धीरे-धीरे- लिखती रहना, भोली बहना री कल्पने । द्वार पे रुकना और सम्हल जाना, चतुरा लखन-उम्मिला की पद-रेखा तनिक चूम लेना, विधुरा । (५४) भावी की, अतीत की, विस्मृत-पट की, विस्मारक तट की,- जीवन-बट की, मन-मर्कट की, विषाद की श्यामा लट की,- सब की याद भूल कर जाना, रग चढे तुझ पर मस्ताना, इधर-उधर से चित्त हटा कर- नवल वधू के चरण लगाना, ले आना उनकी क्रीडा के, कुछ विकसित, कुछ मुकुलित फूल', उन्हे सजा देना हिन्दी-सरयू-सरिता-कविता के कूल ।।