पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राज प्रासाद में (५५) एक बार जिन को देखा था जनक राज के मजु सदन में, उन्हे अाज चल देखे, पाली, दशरथ नृप के भव्य भवन मे, ललित ऊम्मिला, सुरभित सीता आ पहुंची है अपने घर मे, एक छोर से दूजे तक ज्यो सौदामिनी गई अम्बर मे । (५६) सासो की गोदी मे, माँ का मृदु उत्सग छोड उठ आई , अथवा उत्तर दिन की किरणे वर्तमान दिन में जुट आई , फैला वत्सलता-प्रवाह वे युग तट श्वश्रू-सरिताओ के- पूरित थे । हिय मे उफान आ गया नेह-पय-भरिताप्रो के । (५७) एक ओर प्रासाद कक्ष मे लक्ष्मण-प्रिया विराज रही है, अथवा फलकासन पर सस्मित कुसुम-राशि मृदु भ्राज रही है, पीछे खडे हुए रिपुसूदन मुसकाते से देख रहे है, अपनी भाभी के स्कन्धो के ऊपर से झुक , पेख रहे है। (५८) तन्मय-सी, नीरव-सी बैठी सम्मुख मुग्ध सुमित्रा माता, हर्ष और सन्तोष भाव यह मुख पर रेंग अपना छलकाता , झलक रही है चिर कृतज्ञता उन जगती के स्वामी के प्रति, जिनके कृपा-कटाक्ष मात्र से फूली यह फुलवारी सम्प्रति ।