पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१०९

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द्वितीय सर्ग निज पति का औदास्य-भाव वह वे अब सहसा भूल गई है, क्षीर-दान की बेला का वह दु ख गया । अब शूल नहीं है। अब आई बहार, वृद्धा की सूनी कुटिया आज खिल उठी, उड बैठी उम्मिला कोकिला, हिय की डाली आज हिल उठी। (६०) एक ओर यह प्रकृति, दूसरी ओर प्रकृति की माया बैठी, अथवा दूजी अोर प्रकृति के गुण, लक्ष्मण की छाया बैठी, उनके पीछे सस्मित से ये लघु सौमित्र देखते है यो, निश्छल भाव मनुज तन धर के आया हो कुसुमित हो कर ज्यो। (६१) एक ओर वृद्धा ऋतु रानी फूली-फली विराज रही है, और दूसरी ओर यह कली सुख की थाली साज रही है लाज समाई इन आँखो मे-उन मे है सन्तोष समाया, इधर शुत्रसूदन-नयनो मे मृदु उपहास हास्य-रस लाया । 7 आज सुमित्रा माँ का मानस -दिग-मडल गत-शोक हुआ है, छाया, धूप, वायु, बादल, सब शान्त हुए । पालोक हुआ है। उनकी प्राची दिशि मे दो-दो चन्द्र उदित है आज सुखारे, जिन की विमल चन्द्रिकाएं ये हरती है उनके दुख सारे । (६३) अरे, वेदना कहाँ ? सुमित्रा माँ के मन की हूक कहाँ है उस मॅडराती विकला चकई की निशीथ की कूक कहाँ है ? कहाँ ? कहाँ वह गई वेदना ? कहाँ क्लेश की चरम यातना? धन्य चिरतन तप की प्रतिमे, धन्य सुमित्रे । धन्य भावना । ?