पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

म्मिला हे मॉ, झूला आज डाल दो, निज रसाल की एक डाल पे, अथवा ग्रीवा से आदोलित अपनी इस पालम्ब-माल पे , बैठाप्रो ऊम्मिला बहू को और लखन भी आन विराजे, धीरे-धीरे तुम झोटे दो-खडी-खडी वत्सलता लाजे । (६५) इस धन को, हे चिर भिखारिणी मॉ, किस गृह से ले आई हो? यदि प्रतिपण का सौदा है तो बदले मे क्या दे आई हो ? आदान-प्रतिदानो के या विनिमय के उन पुण्य-गृहो मे- मिलता है यह ? या मुनियो के तप से पूत अरण्य-गृहो मे ? खूब जतन से इसे जोहना, देवि सुमित्रे , धन्य भाग है , आज तुम्हारे द्वारे आ कर खुल खेले ये रग-राग है । झर-झर पिचकारी उडने दो, गूंज उठे मीठी स्वर-लहरी , तन रँग जाय, हृदय भी डूबे, पुलक उठे हम सब रह-रह, री। (६७) यह झिलमिल प्रकाश आलोकित कर दे सारे जगतीतल को, मा, यह पुण्य-प्रसाद तुम्हारा करे विमल सब के हीतल को, सर्व दिशाएँ गूंज उठे अब लक्ष्मण के उस धनु दुर्धर से, और ऊम्मिला उन की कीति गा उठे अपने स्वर हिय-हर से । (६८) नव-प्रभात की बेला, अथवा सान्ध्य-किरण के गृथित जाल में, जब चाहो अकित कर देना, मॉ, चुम्बन इस शुभ्र भाल मे, मम कम्पित कल्पना रहेगी खडी मूक-सी एक कक्ष मे, जब तुम इस दुलहिन को, माता,छिपा रखोगी स्फुरित वक्ष मे।