पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१११

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द्वितीय सर्ग ? (६६) विगत विषाद-बत्र रेखा के जो अकन तब हृदय-पटल के, आज ऊम्मिला उन्हे पोछती अपने कर से हलके हलके , मॉ, पुंछ जाने दो उन सब को, रहे न कुछ भी चिन्ह शेष अब, कब की बात ? बहुत दिन बीते। उनका क्या लवलेश-जलेश अब (७०) तुम ने कब अपनी पीडा का स्रवित अरुष जग को दिखलाया? द्रवित क्षणो की सस्मृतियो को सदा भूलना ही सिखलाया । अच्छी मॉ, इस सुख के क्षण मे आज तुम्हे पल्लवित देख कर, यह कल्पना जा रही क्यो तव विगत दुःख की मलिन रेख धर? (७१) जाने दो कल्पन, निरी तुम मूर्खा हो, लौटो, पानो री, गई कहाँ थी और कहाँ जा पहुँची ? पगली हो, प्राओ री, देखो इधर सुमित्रा बैठी और सामने ऊम्मिला बहू उनके पीछे रिपुसूदन है, कैसे वर्णन करूँ, क्या कहूँ (७२) प्राची-दिशा बधूटी के सम श्री अम्मिला बधू लोचन,- कुछ-कुछ उन्मीलित है, उन मे छाए है लक्ष्मण-रवि-रोचन , अभी आँख के अोझल है वे, यथा प्रात से पूर्व दिवाकर, आ पहुँचा आलोक ऊम्मिला के कपोल के फुल्ल कमल-सर । (७३) रिपुसूदन उनके पीछे स्मित हास्य कर रहे है विकसित यो, अरुण-किरण से प्राच्य क्षितिज मे मेघ खड होता बिलसित ज्यो, ये बैठी सामने सुमित्रा देख रही क्रीडा मन भावन, विश्वेश्वर की नियम-धृ खला मानो विश्व घुमाती पावन । ?