पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११३

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द्वितीय सर्ग (७६) यदि शिकार को निकला था, तो अच्छा एक धनुष लेना था, और एक बलवान तुरगम भी तो उसको दे देना था ? पर तुम ने तो यह सब कुछ भी नहीं दिखाया अपनी कृति मे, माँ, तुम ही कुछ कहो, सुन रही हो डूबी-सी तुम विस्मृति मे।" (८०) पुलक सुमित्रा बोली लख कर रिपुसूदन को यो अकुलाते, "सुनती हो कल्याणी, अपने देवर की भोली-सी बाते ? देखें , लामो इधर चित्रपट, क्या विचित्रता तुमने भर दी, क्या अस्वाभाविकता चित्रित इन रेखाओ में है कर दी ?" (८१) दिया ऊम्मिला ने उनको वह चित्र बिहॅस कुछ, कुछ लज्जित हो, ज्यो लज्जा आज्ञानुवत्तिनी हो, चिर नियमो से सज्जित हो, मग्न हुई जब माँ ने देखा निज लाडिली बहू का चित्रण, मानो सहसा याद आ गया गत जीवन का कोई लक्षण । (८२) फिर बोली “यह मृगया प्रेमी, बहू, कहाँ से तुम ने इतना सुन्दर रूप-निरूपण | यह तुमको किसने सिखलाया ? इस चिर प्राखेटक का मुख तो लक्ष्मण के मुख के समान है, अपने आदर्शो के पीछे खो बैठा यह स्मृति-ज्ञान है । (८३) मै बलि गई बतानो, किस ने तुम्हे सिखाई चित्रकला यह रेखानो की सायोगिक अति ललिता अभिव्यक्ति कुशला यह ? सच कह दो, लक्ष्मण को, तुम ने केसे समझा कि वह शिकारी- अपने निश्चय का पक्का है ? बोलो रानी, मै बलिहारी ।। 2 पाया ?