पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२

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भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः । वरयेम सुते राजस्तयोरर्थे महात्मनो ॥ -हे नरश्रेष्ठ ! मुझे आप से एक बात और कहनी है। उसे भी आप सुन ले। यह जो आपके लघु भ्राता कुशध्वज है, इन धर्मात्मा के भी अति सुन्दरी दो कन्याये है। उन दोनों कन्याओं को भी मैं रामा के भाई भरत तथा शत्रुघ्न के लिए आप से मांगता हूं। इन अवतरणों से यह स्पष्ट है कि अम्मिला राजा जनक की और माण्डवी तथा श्रुतिकीर्ति जनक के अनुज राजा कुशध्वज की पुत्रियों थीं। आदि कवि ने स्पष्ट रूप से अम्मिला को जनक नन्दिनी ही माना है। मेरा यह काव्य-प्रन्थ पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। यह कैसा है, इसका निर्णय वे स्वय करें। इस व्याज से मेरी भारती सीताराम और अम्मिला-लक्ष्मण का गुण गा सकी--इसी में मैं उसकी सार्थकता मानता हूँ। मेरे अन्य काव्य ग्रन्थों के सदृश, जो या तो प्रकाशित हो चुके हैं या हो रहे है, यह ग्रन्थ भी प्रकाश मे न आता यदि आयुष्मान् पडित प्रयाग नारायण त्रिपाठी मेरी सहायता न करते । पाण्डुलिपि से उतर- वाने से लगाकर पुनरावृत्ति तक के सब कार्यों मे चिरजीवी प्रयाग नारायण मेरे सजग सहायक रहे है। उनके इस अकारण स्नेह से मेरा रोम-रोम भीजा हुआ है। उन्होने मुझे जो साहाय्य प्रदान किया है उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं है ५, विंड्सर प्लेस नई दिल्ली। -२६ जनवरी, १६५७ } बालकृष्ण शर्मा