पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२२

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ऊम्मिला ? , (१२४) धीरे से, लज्जित रसना को कुछ प्रस्फुटित और विकसित कर, बोली श्री ऊम्मिला, मान्ता नॅनदी को अति आह्लादित कर, "मैं क्या तुम्हे बताऊ ? जीजी, मुझ मे क्या है, मै क्या जानू जो तुम बाते कहती हो वे सब मै निरी सत्य क्यो मानू (१२५) हा इतना मै जान सकी हू कि तुम कृपा करती हो मुझ पर, वत्सलता के वशीभूत हो अमृत-पाणि धरती हो मुझ पर अवधपुरी की माताए भी बडे लाड से, बड़े चाव से, मुझ अबोध बाला को अहनिशि ढंक देती है प्रेम-भाव से ।" (१२६) "नही,' शान्ता बोली, "भाभी, यह रहस्य तुम सुलझानो, री, प्रवाह का क्या कारण है, समझानो, री, मुझे न टालो तुम बातो मे । कुछ निगढता हे इस सब म, पिड पडूंगी, औ' समझूगी यह अति गुह्य भावना अब मै ।" (१२७) यो कह श्री शान्ता देवी ने उनका मृदु कर-पल्लव थामा, उत्सुकता से लगी पूछने इस रहस्य का कारण वामा , लक्ष्मण रानी ने अपना मुख छिपा लिया गोदी में उनकी, यथा छिप गया हो अपने से जीव स्वय गोदी में गुण की । (१२८) फिर कुछ ध्यान-मग्न सी होकर, कुछ धीरे-से, मीठे स्वर से, कहने लगी अम्मिला, मानो बही वचन-सुरसरि अम्बर से , "तुम ने ठीक कहा, है मेरी माता के पय मे सघर्षण, उस नवनीत मधुर का मुझ मे आन समाया है आकर्षण । इस वन्सलता