पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२३

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द्वितीय सर्ग (१२६) यदि कुछ है तो केवल माँ का ही प्रतिबिम्ब समाया मुझ मे, उनके पुण्य आत्ममथन का रचमात्र कण आया मुझ मे , मेरी जननी वत्सलता की पुण्य त्ति है, शान्ते जीजी, मेरे तात चरण ही उनकी पूर्णा गति है, शान्ते जीजी । (१३०) मातृ-धर्म के मन्त्र मनोहर हमे सिखाये थे -माता ने, विश्वेश्वर के अटल नियम के रूप दिखाये थे माता ने पूर्ण भुक्ति की ओर विश्व को ले जाना है काम हमारा, जगती को तद्रूप बनाने में देना है हमे सहारा । , पूर्ण सत्य की ओर विश्व का चक्र घुमाएँ माताएँ मिल, अपने स्तन की शुद्ध-धार से दूर करे वसुधा का पकिल , मेरी माँ की यही भावना मुझ मे कुछ-कुछ प्राय समानी, इसी लिए तुम मुझे बढावा देती हो, नॅनंदी कल्याणी ।" (१३२) सखी, कल्पने, अब देखेगी क्या तू कहा चलेगी, कह दे ? पद-विन्यास अम्मिला के लख क्या तू अब मचलेगी, कह दे ? अभी देखना है लक्ष्मण का मन-मधुकर मॅडराते, सजनी, बीत न जाये जीवन-घटिका, आ जाये न अन्त की रजनी । ? , अरी, देखना अभी-अभी तो वे आई है अपने घर मे, दो दिन में ही उन घर कर लिया सभी के अन्तर तर मे किस प्रकार लक्ष्मण-उपवन मे हुलस खिलेगी औ' फूलेगी ? लक्ष्मण-शाखा पर वे कैसे झूम-झूम झुक झुक झूलेगी ?