पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सर्ग , + बह चली है तटिनी भरपूर, दूर तक फैली जल की राशि नही है उत्कण्ठा-उत्क्रोश, मूक हो गई हिये की क्वासि एक-दूजे ओत-प्रोत- स्रोत दोनो ये एक समान एक धारा हो कर बह रहे, देह दो, किन्तु एक है प्राण, मान का दान और प्रतिदान, हास का पाश और सुविलास, मिला के ऑगन मे, सखी, कर रहे है मन्द स्मित रास । (४) यह सयोग निहार, करो कुछ ऐसा वर्णन आज , बहे शृङ्गार-सुरस की नदी, न दीखे तट-बत्तिनी सुलाज, आज कुछ ऐसी हो उन्मत्त- करो विचरण-विचरण के हेतु, नदी को पार करो, री दीन, कहाँ की नाव, कहाँ का सेतु ? लखन, ऊम्मिला निभावे तुझे, बनी कागद की तेरी नाव, कही यदि वह विगलित हो गई, अमरता धोयेगी तव पॉव । लेखनी, 1