पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२८

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ऊम्मिला ?" था "सुनो, मॉ, मेरी भी कुछ सुनो,- या कि वे ही सब सच कह रहे सुमित्रा से यो प्रार्थी बने, ऊम्मिला के लोचन डहडहे , खेलता उन मे आलाद, और क्रीडा का लोलुप भाव . किन्तु लक्ष्मण का मृदु सामीप्य- लगाता था लज्जा के दाव, इस तरह नेत्रो को नत किए, किन्तु दरसाती कुछ-कुछ खीझ,- सुमित्रा माता के पार्श्व मे, ऊम्मिला खड़ी हुई थी रीझ । पर्य सीन , अवणित परिहास-शीलता लिए,- हिलाते मा का अचल छोर,- लोचनो से कौतुक की वृष्टि- कर रहे थे लक्ष्मण उस ओर , सुमित्रा उन दोनो के बीच - हो रही थी कि मानो दो मध्यान्हो मध्य- हो रही अरुणा सन्ध्या-लीन , एक क्षण लक्ष्मण को वे देख, दूसरे क्षण ऊम्मिला निहार, सोचती थी-“अब इस पे, या उस पे, मै हो जाऊँ बलिहार ?"