पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जम्मिला (२६) अरे, सब दिड मण्डल का नहीं- चराचर का यह रास-विलास, दिशाम्रो का सचालन और- चेतनामय जग का उल्लास,- गुंथ गया जड के कण-कण बीच , और चेतन के स्पन्दन मध्य, - ओर नई-सी लहर, मिल गया गद्य और नव पद्य, सचेतनता जडता मे मिली, अँधेरा नव प्रकाश में मग्न, छा गया नव-किरणो का राज्य, ससृति सु-रास-सलग्न । उठी सब धमनियो में दौडा नव रक्त, भक्तगण भूले निज भगवान हो गए अपने ही में लीन, अहम् के छुटे तीखे बाण , प्राण-सचालन की नव-क्रिया- कर चली पैदा कुछ उन्माद , नशा-सा छाया चारो ओर, वसन्तागम का नवल प्रसाद याद भूली अन्तर की,--बाह्य रूप में हुए जीव सब मुग्ध, मदिर रस मे परिणत हो गया नव्य ससृति का निर्मल दुग्ध । 1 ig