पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१४५

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द्वितीय सर्ग देवि, . कहूँ आगे की मै क्या बात ? ऊम्भिला-चरणो का मैं भक्त , स्वामिनी है मेरी वे लखन रहते उन में अनुरक्त , हमारे सदृश पाप के कुटी मे कैसे करे प्रवेत्र ? पूर्ण शुचिता छाई है उधर, इधर है निन्ध वासना शेष ; चरण-रज के प्रसाद से जब कि बनेगे निर्मल मेरे प्राण, तभी गाऊगा मै निद्वन्द भाव से रति-क्रीडा के गान । (४०) अभी तो चलो, कल्पने, चले, लखन की आज्ञा लेकर आज; नवल कुटिया की सुन्दर द्वार- देहली पे बैठो सज . साज; सजगता से सब बाते सुनो, हृदय मे लिख लो उनको, अये, भक्ति के सूत्र, नेह के रूप, सभी कुछ बिखरेगे नित नये, हमारे आर्य-धर्म के विमल ध्वजा धारी, ये, शुचिता-मोक, ऊम्मिला-लक्ष्मण वन के बीच, विचरते है होकर गत शोक ।