पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१४७

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द्वितीय सर्ग (४३) अम्मिला की सुनते ही बात, उठ पडे सहसा लक्ष्मण वीर , जाग उठता है जैसे पथिक, उषा जब देती नभ को चीर अम्मिला को भुज भर के उठा, बिठाया निजोत्सग के मध्य , और उनके मुख पर दी गाड दृष्टि निज स्वग्निल, निर्मल, सद्य , तथा-"ऊम्मिले देवि ऊ म्मि ले" कढे लक्ष्मण के अस्फुट बैन, और उतराने लगे प्रशान्त महासागर मे उनके नैन 1 (४४) "रच मेरी गोदी रच आतुर-सी हो कर रहो रच वैसी ही झिझको, देवि, रच फिर से प्रश्नावलि कहो ऊम्मिले, तुम रानी अम्मिले, लगाओ फिर प्रश्नो की झडी , अपार्थिव औ' पार्थिव सयोग- समस्या की फिर गूंथो लडी , ऊम्मिले, प्रश्न नहीं है,-प्राण- तक्र का यह है नव नवनीत, विश्लेषित इसे ? जगा दी तुम ने सुरति अतीत ।" म बैठ, 2 1 करू कैसे