पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१४९

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द्वितीय सर्ग प्रेम के शुद्ध ? ? ? (४७) रूप मे कहो- सम्मिलन है प्रधान या गौण ? कौन ऊचा है ? भावोद्रेक ? या कि नत आत्म-निवेदन मौन ? मिलन-यह सासारिक सयोग,- पार्थिव भाव है न यदि पूत , कहो तो फिर सम्मिलनोल्लास हुआ क्यो मनुज-प्रकृति-सभूत यही है प्रश्न, यही है प्रश्न, बँधा है धागे मे यह प्रश्न अरे कच्चे धागे का सिरा कहा उठता यह रह-रह प्रश्न (४८) प्रेम क्या है ? रानी कुछ कहो, क्षुधा क्या है यह अति विकराल ? नीद क्या है निशीथ की घोर ? आत्मरक्षा क्या यह सुदिशाल ? बनी यदि सृजन-भाव का हेतु जीवन-धारण-अभिलाष, प्रश्न फिर भी है जीवन-लोभ किस लिए डाल रहा है पाश ? ऊम्मिले, कुछ विचार तो करो कि कितनी गहराई के बीच,- उतारा तुमने मुभको ? अरे, कहा ले डाला मुझको खीच ? सतत v