पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५१

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द्वितीय सर्ग 5 > बनो मे भूला प आदि मे शिश्नोदर की व्याधि, रही परिचालित करती उसे किन्तु हिय मे जिज्ञासा-भाव, छिपा था अन्तस्तल मे घुसे भटका फिरा, खोजता अपने पन का रूप बना उन्मत्त,--बनायम और, स्वय का अद्भुत रूप अनूप ऋमिक गति से हृदयोत्पल खिला खिल उठे नूतन भाव विकार,- सहस्रो सकल्पो की लगा गूंथने माला मालाकार। (५२) सहस्रो नव जागृत रस राम- फाग सी लगे खेलने, अहा, आदि की नव-प्रस्फुटिता शक्ति, पूर्ण विकसित हो आई यहाँ निरी कामुकता का वह रूप,--- प्रथम का वह प्रजनन का भाव,--- कहाँ है आज ? लोप हो रहा । यहाँ निग्रह की ओर झुकाव , शक्तियों धीरे-धीरे, किन्तु अवश्य उत्क्रान्त, जीव का यात्रा-पथ विस्तीर्ण, अभी वह कैसे होगा श्रान्त ? १३७