पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५२

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ऊम्मिला . , t (५३) मानवेतर समाज मे, देवि, राग-रस प्रकृति-सिद्ध है बने वासना ही उनकी प्रेरणा, वासना ही में वे है सने किन्तु मानवता का गल-हार, बनी है यह विवेक-शृङ्खला बेडिया इस ने डाली प्रान, वासना बाधी उच्छृङ्खला मेखला कटि मे अब बंध गई। प्राकृतिक स्फूति हुई कुछ शान्त विकस खिल उछा ज्ञान अनूप, भावना सँभली यह उद्भ्रान्त । (५४) प्रथम युग का वह कामुक भाव, प्रेम में अब परिणत हो गया इन्द्रियो का भौतिक परितोष, ज्ञान की गोदी मे सो गया , खो गया है वह अन्धावेश, प्रेम आदर्श-रूप बन गया सुसस्कृति ने खीची करवाल, हृदय मे युद्ध प्राज ठन गया , मानसिक, शारीरिक, प्रक्रिया हो रही भिन्न । उदित है भानु , तिमिर का अवगुठन फट रहा, हुए आलोकित सब परमाणु । 1