पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५३

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द्वितीय सर्ग (५५) मानसिक क्षितिज हुआ विस्तीर्ण, हुअा अालोकित, द्युति से पूर्ण, तमोगुण के भूधर के शिखर- हो रहे है अब कुछ-कुछ चूर्ण, पूर्ण स्वातन्त्र्य, पूर्ण विस्तार, देह के गुण-बन्धन से मुक्ति , हो रहा है मुक्ता - का जन्म, फट रही है सम्पुट-युत शुक्ति, हमारे श्वशुर,--सदेह विदेह,-- पूर्णता के है शुचि आदर्श, तपोबल से है निर्मित किया उन्होने जीवन का नव वर्ष । 1 जीव करता है मार्ग-क्रमण प्रतिक्षण, प्रति मुहूर्त, प्रति घडी, प्राकृतिक जडता की शृङ्खला बनी भावोन्मेषो की लडी, लगाती है वह झटका एक जीव बरबस खिच आता, प्रिये, तनिक सँभला, फिर झटका लगा, पतन फिर हुआ पतन के लिए, कई झटके लगते है, किन्तु जीव बढता जाता है सदा, अन्त मे जनक देव के सदृश प्राप्त कर लेता है सम्पदा